हिदुस्तान 24 टीवी न्यूज चीफ विजय सिंघल
मथुरा। गोवर्धन में सात कोस की परिक्रमा के लिए परिक्रमार्थी निकला है। मन में तस्वीर प्यारी है, गोवर्धन गिरधारी है। मथुरा में संकेतक दिखते ही आगरा-दिल्ली हाईवे से गाड़ी 90 डिग्री पर मुड़ती है। यहीं कड़वे स्वाद का अहसास होता है। मन की तस्वीर से दृश्य सर्वथा भिन्न है। बीच सड़क पर बस यात्रियों के इंतजार में खड़ी है। बाकी रास्ते पर ई रिक्शा वालों का राज। परिक्रमा को निकला आकांक्षी तो कुछ प्रतीक्षा करना चाहता है कि अचानक पीछे के हार्न से मन विचलित हो जाता है। फिर भी बेबसी है। आखिर ध्वनि प्रदूषण के लिए यात्री की उंगली भी हार्न स्विच को दबाने लगती हैं। परंतु किसी पर कोई अंतर नहीं। मन में सोच है कि यह तो अधिकतर प्रदेश का ट्रैफिक सेंस है। फिर भी ऐसे सिस्टम में किसे फर्क पड़ता है। आवाज तेज होती है तो, ई रिक्शा कुछ सवारी बैठाते हुए किनारे हो जाता है। लगभग 200 मीटर तक न जाने कितनी ठेलें और हार्न का दौर चलता है। आखिर गाड़ी आगे बढ़ती है। आगे सड़क आधी और वाहन की बर्बादी का नमूना है। प्रश्न है कि यह हालत कब से है, छानबीन पर पता चलता है कि 25 किमी तक की दूरी वाली सड़क को 2016 में चार लेन करने की मंजूरी हुई थी। बजट 138 करोड़ था। सड़क बनने लगी, बीच-बीच में हरियाली बाधा थी, इसलिए पेड़़ों पर आरी चलनी शुरू हो गई। कान्हा की धरा पर 1803 पेड़ों का विनाश किसे पसंद आता। बात 2017 में सर्वोच्च अदालत तक पहुंच गई। अब लोक निर्माण विभाग की सोच का रास्ता देखिए। इंजीनियरों को वहां की अनुमति से पहले कार्य शुरू कराकर भुगतान की जल्दी है, ऐसे में जहां जगह मिली वहीं खुदाई हो गई। पेड़ों की कटाई के बिना निर्माण पूरा न होना था और न हो सका। हां, पांच साल से गोवर्धन के यात्री जरूर झटके खा रहे हैं। दुर्घटनाग्रस्त हो रहे हैं। इस बीच न जाने कितने जनप्रतिनिधि सड़क से गुजरे पर कोई सवाल नहीं। बड़े अधिकारी आए लेकिन वह भी कुछ नहीं बोले।
आखिर विकास कार्य शुरू करने से पहले सभी आपत्तियां दूर क्यों नहीं होतीं। आखिर क्यों सभी स्वीकृति पहले नहीं ली जातीं। किसी ने क्यों नहीं सोचा कि जहां साल में बीसियों लाख यात्रियों का पड़ाव हर वर्ष होता है, वहां काम में कोई बाधा न आए। इससे काम का बजट बढ़ता रहता है, जिसका जिम्मेदार कौन है। सच यह है कि यहां किसी को अक्सर सजा नहीं होती, इसलिए कोई सोचता नहीं। परिक्रमार्थी या ब्रज का दर्द यहीं तक सीमित नहीं है। वृंदावन में चंद्राकार घाट के पुल का काम आधा होने के बाद रोकना पड़ा, क्योंकि वहां भी विरासत से छेड़छाड़ से सर्वोच्च अदालत ने मना कर दिया। अंत में पुल पर हथौड़ा चला। वृंदावन पर यमुना के घाटों का काम तो, बिना विस्तृत परियोजना रिपोर्ट के ही शुरू हुआ, जल्दी इसलिए थी कि कार्य करने वाली कंपनी ऊंची पहुंच वाली थी। यहां भी काम समान वजह से रोकना पड़ा। इस पर भी धन की बर्बादी हुई। यह कहां से आया, जनता से मिले कर से। उसे बर्बाद करने वालों में से किसी से पूछताछ नहीं हुई। वैसे यह तो बर्खास्तगी के अधिकार वाले अधिकारी थे। परंतु सिस्टम किसके हाथ में है, उनके ही। यह तस्वीर अब बदलनी चाहिए। आखिर सरकार का नेतृत्व यही चाहता है।
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Author: Vijay Singhal
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